परहित-सरस-धरम-नहि-भाई | Essay on Parhit Dharam Saras Nhi Bhai | हिंदी में निबंध |

 रामचरित मानस की एक लाइन है, 'परहित सरिस धर्म नहिं भाई।' आम आदमी को धर्म का मर्म सरल ढंग से समझाने के लिए मानस की चौपाई की यह अर्धाली बहुत ही उपयुक्त है। सार यह है कि दूसरों की भलाई करने जैसा कोई दूसरा धर्म नहीं है। सभी धर्म की सभी परिभाषाओं और व्याख्याओं का निचोड़ है अच्छा बनना और अच्छा करना। और दूसरों की भलाई करना तो निस्संदेह अच्छा करना है। सभी मजहबों ने एकमत होकर जिस बात पर जोर दिया है, वह है मानवता की सेवा यानी 'सर्वभूत हितेरता' होना। भूखे को भोजन कराना, वस्त्रहीनों को वस्त्र देना, बीमार लोगों की देखभाल करना, भटकों को सही मार्ग पर लगाना आदि धर्म का पालन करना है, क्योंकि धर्म वह शाश्वत तत्व है जो सर्व कल्याणकारी है। ईश्वर ने स्वयं यह प्रकृति ऐसी रची है कि जिसमें अनेकचेतन और जड़ जीव इसी धर्म (परहित) के पालन में लगे रहते हैं। संत विटप सरिता, गिरि धरनी। पर हित हेतु सबन्ह कै करनी।। संत जन भी लोक मंगल के लिए कार्य करते हैं। नदियां लोक कल्याण के लिए अपना जल बहाती हैं, वृक्ष दूसरों को अपनी छाया और फल देते हैं, बादल वसुन्धरा पर जनहित में पानी बरसाते हैं। इसी प्रकार सत्पुरुष स्वभाव से ही परहित के लिए कटिबद्ध रहते हैं। इसके विपरीत परपीड़ा अर्थात दूसरों को कष्ट पहुंचाने से बढ़ कर कोई नीचता का काम नहीं है। परहित नि:स्वार्थ होना चाहिए। जहां स्वार्थ का भाव आ गया, वहां परहित रहा ही नहीं। यदि किसी की भलाई, बदले में कुछ लेकर की तो वह भलाई नहीं एक प्रकार का व्यापार है। परहित तो वह है, जिसमें दधीचि मुनि देवताओं की रक्षा के लिए अपनी अस्थियां दे देते हैं। अर्थात स्वयं का बलिदान कर देते हैं। जिसमें राजा दिलीप गाय को बचाने के लिए सिंह का भोजन बन जाते हैं। और जिसमें विलाप करती हुई जानकी को रावण के चंगुल से बचाने के लिए संघर्ष करते हुए जटायु अपने प्राण निछावर कर देते हैं। परहित में प्रमुख भाव यह रहता है कि ईश्वर द्वारा दी गई मेरी यह शक्ति और सार्मथ्य किसी की भलाई के काम आ सके। मानस में अन्यत्र आता है : परहित बस जिन्ह के मन माहीं। तिन्ह कहुँ जग कछु दुर्लभ नाहीं।। यह बात स्वयं भगवान राम ने अन्तिम साँस लेते हुए जटायु से बहुत स्नेह और आभार भाव से कही कि जो दूसरों का हित करने में लगे रहते हैं, उनके लिए संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं है। परहित करने में प्रेम, सद्भाव और सहिष्णुता जैसे सभी सकारात्मक भाव समाहित हैं, जो धर्म के अंग हैं। एक राजा के आदेश पर उसके राज्य में किसी धर्मपरायण व्यक्ति की खोज आरम्भ हुई। कुछ चुने हुए व्यक्तियों के साथ एक साधारण से दिखने वाले व्यक्ति को भी राजा के सामने पेश किया गया। राजा ने उससे पूछा- ' क्या काम करते हो?' ' हुजूर, किसान हूं!' ' कुछ धरम-करम करते हो क्या?' ' धरम-करम के बारे में कुछ नहीं जानता, सरकार!' ' खेत के काम के अलावा और क्या करते हो?' ' कोई भूखा हो तो थोड़ा अनाज दे देता हूं, किसी बीमार की कुछ सेवा टहल कर देता हूं और किसी जरूरतमंद की कुछ मदद...!' ' पर इससे तुम्हें क्या मिलता है?' ' कुछ नहीं मिलता सरकार! लेकिन मुझे कुछ चाहिए भी नहीं। बस उन जरूरतमंदों को कुछ आराम मिल जाता है।' राजा ने कहा, यही वह धर्मात्मा है जिसकी मुझे तलाश थी। यही मेरा उत्तराधिकारी बनने योग्य है। महोपनिषद में एक सूत्र है। यह मेरा बंधु है और यह नहीं है, यह क्षुद चित्त वालों की बात होती है। उदार चरित्र वालों के लिए तो सारा संसार ही अपना कुटुंब होता है। वे सबका भला करते हैं। तीर्थयात्री कई-कई किलोमीटर चल कर अत्यंत श्रद्धा से ऋषिकेश-हरिद्वार से गंगाजल भर कर लाते हैं या तीर्थाटन करते हैं। काँवड़ ले कर जाते हैं। देश में कम से कम दस-पन्द्रह लाख गेरुआधारी साधु-संन्यासी होंगे। वे सब किसका भला करते हैं? परहित के बिना उनके किसी भी अनुष्ठान का क्या महत्व?